जीरावला पार्श्वनाथ

  1. " Creative Thoughts " 😍😎: श्री जीरावला पार्श्वनाथ भगवान की महिमा
  2. Shri Jirawala Parshwanath Jain Tirth
  3. समाज में मनुष्यता के प्रतिस्थापक भगवान पार्श्वनाथ
  4. प्रभु पार्श्वनाथ की तरह हम भी बने वीतराग – आचार्य महाश्रमण


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" Creative Thoughts " 😍😎: श्री जीरावला पार्श्वनाथ भगवान की महिमा

मूलनायक श्री जीरावला पार्श्वनाथ भगवान आराधना मंत्र : ॐ ह्री श्रीजीरावलापार्श्वनाथाय नम: तीर्थाधिराज :- श्री जीरावला पार्श्वनाथ भगवान, पद्मासनस्थ मुद्रा, श्वेत वर्ण, लगभग १८ से.मी. (श्वेताम्बर मन्दिर) तीर्थ स्थल :- जीरावला गाँव में जयराज पर्वत की ओट में। तीर्थ विशिष्टता :- इस तीर्थ की महिमा का शब्दों मे वर्णन करना सम्भव नही है। प्रभु प्रतिमा अति मनमोहक व चमत्कारी है। दर्शन मात्र से ही सारे कृष्ट दूर हो जाते है। यहाँ जीरावला पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर विक्रम सं. ३२६ मे कोडी नगर के सेठ श्री अमरासा ने बनाया था। अमरासा श्रावक को स्वप्न में श्री अधिष्ठायक देव ने जीरापल्ली शहर के बाहर भूगर्भ में गुफ़ा के नीचे स्थित पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा को उसी पहाडी की तलहटी में स्थापित करने को कहा। ऐसा ही स्वप्न वहाँ विराजित जैनाचार्य श्री देवसूरिजी को भी आया था। आचार्य श्री व अमरासा सांकेतिक स्थान पर शोध करने लगे। पुण्य योग से वहीं पर पार्श्वनाथ स्वामीजी की प्रतिमा प्राप्त हुई । स्वप्न के अनुसार वही पर मन्दिर का निर्माण कर प्रभु प्रतिमा की प्रतिष्ठा वि.सं. ३३१ में आचार्य श्री देवसूरिजी के सुहस्ते सम्पन्न हुई । श्री जीरावला पार्श्वनाथ भगवान की महिमा का जैन शास्त्रों में जगह जगह पर अत्यन्त वर्णन है। अभी भी जहाँ कहीं भी प्रतिष्ठा आदि शुभ काम होते है तो प्रारंभ में“ऊँ श्री जीरावला पार्श्वनाथाय नमः” पवित्र मंत्राक्षर रुप इस तीर्थाधिराज का स्मरण किया जाता है। इस मन्दिर मे श्री पार्श्वनाथ भगवान के १०८ नाम की प्रतिमाएँ विभिन्न देरियों में स्थापित है। प्रायः हर आचार्य भगवन्त, साधु मुनिराजों ने यहाँ यात्रार्थ पदार्पण किया है। इस तीर्थ के नाम पर जीरापल्लीगछ बना है, जिसका नाम चौरासीगच्छों में आता है।...

Shri Jirawala Parshwanath Jain Tirth

Work hours About जीरावला गाँव में जयराज पर्वत की ओट में । Description इस तीर्थ की महिमा का शब्दों मे वर्णन करना सम्भव नही है । प्रभु प्रतिमा अति मनमोहक व चमत्कारी है । दर्शन मात्र से ही सारे कृष्ट दूर हो जाते है । यहाँ जीरावला पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर विक्रम सं. ३२६ मे कोडी नगर के सेठ श्री अमरासा ने बनाया था । अमरासा श्रावक को स्वप्न में श्री अधिष्ठायक देव ने जीरापल्ली शहर के बाहर भूगर्भ में गुफ़ा के नीचे स्थित पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा को उसी पहाडी की तलहटी में स्थापित करने को कहा । ऐसा ही स्वप्न वहाँ विराजित जैनाचार्य श्री देवसूरिजी को भी आया था । आचार्य श्री व अमरासा सांकेतिक स्थान पर शोध करने लगे । पुण्य योग से वहीं पर पार्श्वनाथ स्वामीजी की प्रतिमा प्राप्त हुई । स्वप्न के अनुसार वही पर मन्दिर का निर्माण कर प्रभु प्रतिमा की प्रतिष्ठा वि.सं. ३३१ में आचार्य श्री देवसूरिजी के सुहस्ते सम्पन्न हुई । श्री जीरावला पार्श्वनाथ भगवान की महिमा का जैन शास्त्रों में जगह जगह पर अत्यन्त वर्णन है । अभी भी जहाँ कहीं भी प्रतिष्ठा आदि शुभ काम होते है तो प्रारंभ में “ऊँ श्री जीरावला पार्श्वनाथाय नमः” पवित्र मंत्राक्षर रुप इस तीर्थाधिराज का स्मरण किया जाता है । इस मन्दिर मे श्री पार्श्वनाथ भगवान के १०८ नाम की प्रतिमाएँ विभिन्न देरियों में स्थापित है । प्रायः हर आचार्य भगवन्त, साधु मुनिराजों ने यहाँ यात्रार्थ पदार्पण किया है । इस तीर्थ के नाम पर जीरापल्लीगछ बना है, जिसका नाम चौरासीगच्छों में आता है । अनेकों आचार्य भगवन्तों ने अपने स्तोत्रों आदि मे इस तीर्थ को महिमा मण्डित किया है । यहाँ पर जैनेतर भी खूब आते हैं व प्रभु को दादाजी कहकर पुकारते है । प्रतिवर्ष गेहूँ की फ़सल पाते ही सहकुटुम्ब ...

समाज में मनुष्यता के प्रतिस्थापक भगवान पार्श्वनाथ

सनातन धर्म की पावन गंगोत्री से निकले विभिन्न धर्मों में जैन धर्म भारत का सर्वाधिक प्राचीनतम धर्म है। चौबीस तीर्थकंरों की समृद्ध जनकल्याण की परम्परा, जो वर्तमान अवसर्पिणी काल में ऋषभदेव से लेकर महावीर तक पहुंची, उसमें हर तीर्थंकर ने अपने समय में जिन धर्म की परम्परा को और आत्मकल्याण के मार्ग को समृद्ध किया है तथा संसार को मुक्ति का मार्ग दिखाया है। काल के प्रवाह में ऐसा होता आया है कि एक महापुरुष के निर्वाण के बाद उसका प्रभाव तब तक ही विशेष रूप से जन सामान्य में रहता है जब तक की उसके समान कोई अन्य महापुरुष धरती पर अवतरित न हो। लेकिन कुछ महापुरुष इसका अपवाद होते है। जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों में तेवीसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के बाद भगवान महावीर हुए लेकिन भगवान पार्श्वनाथ के प्रभाव में कोई कमी आज तक नहीं आई है। जैन मान्यताओं के अनुसार वर्तमान में भगवान महावीर का शासन चल रहा है लेकिन सर्वाधिक जैन प्रतिमाएँ आज भी केवल भगवान पार्श्वनाथ की ही है। जैन मंत्र साधनाओं में भी सर्वाधिक महत्व पार्श्वनाथ के नाम को ही दिया जाता है। भगवान पार्श्वनाथ का जन्म भगवान महावीर के जन्म से 350 वर्ष पहले हुआ। सौ वर्ष की आयु उनकी रही तदानुसार लगभग तीन हजार वर्ष पहले वाराणसी के महाराजा अश्वसेन के यहॉ माता वामा देवी की कुक्षी से पोष कृष्ण दशमी को हुआ। राजसी वैभव के बावजूद आत्मा में असीम करुणा का भाव जो सांसारिक जीवन में उनको लोकप्रिय बना देता है। वे उस दौर के तमाम आडम्बरों के बीच एक कमल पुष्प थे। धर्म और समाज में फैली हिंसा और कुरीतियों के बीच एक धर्म पुरोधा थे। जो मनुष्य समाज में मनुष्यता के गुण करुणा, दया, अहिंसा के जीवन की प्रतिस्थापना करने को आए थे। शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन धर्म ग्रंथो में एक...

प्रभु पार्श्वनाथ की तरह हम भी बने वीतराग – आचार्य महाश्रमण

14.02.2023, मंगलवार, जिरावला पार्श्वनाथ, सिरोही (राजस्थान),अहिंसा यात्रा द्वारा देश विदेश में नैतिकता, सद्भावना एवं नशामुक्ति का संदेश देने वाले जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अधिशास्ता युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी का आज सुप्रसिद्ध जैन तीर्थ जीरावला पार्श्वनाथ में मंगल पदार्पण हुआ। जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ से जुड़ा यह तीर्थ तीर्थस्थलों में अपनी एक विशिष्ट पहचान रखता है। आज आचार्य प्रवर के यहां प्रथम बार पदार्पण से समूचे जैन समाज में विशेष हर्षोल्लास छाया हुआ था। तीर्थंकर के प्रतिनिधि का सानिध्य पाकर पूरा वातावरण आध्यात्मिक रंग में रंगा हुआ था। मंगलवार प्रातः आचार्य प्रवर ने पहुना ग्राम से मंगल विहार किया। जन-जन को अपने आशीष से कृतार्थ करते हुए ज्योतिचरण गंतव्य की ओर गतिमान हुए। पहाड़ी क्षेत्र और हर ओर दृष्टिगत होती लहलहाती खेती नयनाभिराम प्रतीत हो रही थी। अरोह अवरोह भरे मार्ग पर समता के महासागर आचार्य प्रवर लगभग 13 किलोमीटर का विहार कर जीरावला पार्श्वनाथ तीर्थ पधारे तो तीर्थ से संबद्ध पदाधिकारियों ने जयघोषाें से वातावरण को गुंजायमान कर दिया। इस दौरान यहां पर मूर्तिपूजक आम्नाय के आचार्य प्रबोधचंद्र सूरी जी से शांतिदूत का आध्यात्मिक मिलन हुआ। इस मौके पर संघवी हंसराज कानजी राजकीय माध्यमिक विद्यालय, जिरावल के विद्यार्थियों ने आचार्यश्री का स्वागत किया एवं गुरुदेव से प्रेरणा प्राप्त कर सभी ने संकल्पत्रयी स्वीकार करते हुए नशा मुक्ति का त्याग ग्रहण किया। मंगल प्रवचन में उद्बोधन प्रदान करते हुए आचार्यप्रवर ने कहा– लोगस्स व उक्कितणं के पाठ में चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। एक उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकर होते हैं। यह एक नियम ...