कबीर गुरु

  1. गुरु के दोहे अर्थ सहित
  2. कबीर के गुरु और द्विजों का प्रपंच
  3. कबीर
  4. Gurudev Ko Ang
  5. Kabir Das Biography in Hindi
  6. कबीर दास दोहे
  7. कबीर का जीवन परिचय। कबीरदास की रचनाएँ, भक्ति का स्वरूप, अनुभूति पक्ष ।Kabir Das Jeevan Parichay
  8. गुरु के दोहे अर्थ सहित
  9. कबीर का जीवन परिचय। कबीरदास की रचनाएँ, भक्ति का स्वरूप, अनुभूति पक्ष ।Kabir Das Jeevan Parichay


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गुरु के दोहे अर्थ सहित

सूचना: दूसरे ब्लॉगर, Youtube चैनल और फेसबुक पेज वाले, कृपया बिना अनुमति हमारी रचनाएँ चोरी ना करे। हम कॉपीराइट क्लेम कर सकते है गुरु के दोहे अर्थ सहित गुरु का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है। आइये जानते हैं कबीर दास जी के लिखे ( Kabir Dohe On Guru In Hindi ) गुरु के दोहे अर्थ सहित में :- Kabir Dohe On Guru In Hindi गुरु के दोहे अर्थ सहित 1. जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु है मैं नाहिं। प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समांही।। अर्थ :- जब अहंकार रूपी मैं मेरे अन्दर समाया हुआ था तब मुझे गुरु नहीं मिले थे, अब गुरु मिल गये और उनका प्रेम रस प्राप्त होते ही मेरा अहंकार नष्ट हो गया। प्रेम की गली इतनी संकरी है कि इसमें एक साथ दो नहीं समा सकते अर्थात गुरु के रहते हुए अहंकार नहीं उत्पन्न हो सकता। 2. गुरु गोविन्द दोऊ एक हैं, दुजा सब आकार। आपा मैटैं हरि भजैं, तब पावैं दीदार।। अर्थ :- गुरु और गोविंद दोनो एक ही हैं केवळ नाम का अंतर है। गुरु का बाह्य(शारीरिक) रूप चाहे जैसा हो किन्तु अंदर से गुरु और गोविंद मे कोई अंतर नही है। मन से अहंकार कि भावना का त्याग करके सरल और सहज होकर आत्म ध्यान करने से सद्गुरू का दर्शन प्राप्त होगा। जिससे प्राणी का कल्याण होगा। जब तक मन में मैलरूपी “मैं और तू” की भावना रहेगी तब तक दर्शन नहीं प्राप्त हो सकता। 3. गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष। गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मैटैं न दोष।। अर्थ :- कबीर दास जी कहते है – हे सांसारिक प्राणीयों। बिना गुरु के ज्ञान का मिलना असंभव है। तब टतक मनुष्य अज्ञान रुपी अंधकार मे भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बन्धनो मे जकडा राहता है जब तक कि गुरु की कृपा नहीं प्राप्त होती। मोक्ष रुपी मार्ग दिखलाने वाले गुरु हैं। बिना गुर...

कबीर के गुरु और द्विजों का प्रपंच

कबीर के गुरु और द्विजों का प्रपंच द्विज हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर ब्राह्मणवाद के समर्थक गैर द्विज पुरुषोत्तम अग्रवाल तक ने येन-केन-प्रकारेण रामानन्द को कबीर का गुरु करार दिया। जबकि कबीर और रामानन्द की शिक्षाएं एक समान नहीं। कबीर के गुरु तो उनका आत्मज्ञान था जिसे उन्होंने विवेक की संज्ञा दी थी। बता रहे हैं कंवल भारती : रामानन्द नहीं, कबीर का विवेक था उनका गुरु कासी में हम प्रगट भए हैं , रामानन्द चेताय। [i] ये पंक्तियां न ‘कबीर-ग्रन्थावली’ में मिलती हैं और न ‘गुरु ग्रन्थ साहब’ में। लेकिन कबीर के सभी जीवनी-लेखकों ने इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि कबीर को रामानन्द ने दीक्षा दी थी, अर्थात् रामानन्द कबीर के गुरु थे। जब यह पंक्ति कबीर ग्रन्थावली में नहीं है, तो इसका स्रोत क्या है? किसी भी जीवनी लेखक ने इस पंक्ति का स्रोत नहीं बताया है। यह हो सकता है कि इसे किसी रामानन्दी वैष्णव-पंथी ने बाद में गढ़ा हो। लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं है, जो द्विज लेखकों ने बताया है। इसका सही अर्थ यह है कि कबीर स्वयं रामानन्द को चेताने के लिये काशी में आये थे। मुसलमान कबीरपंथी सूफी फकीर शेख तकी को कबीर का गुरु मानते हैं। इस संबंध में श्याम सुन्दर दास का कहना है– ‘‘ कबीर ने अपने गुरु के बनारस निवासी होने का स्पष्ट उल्लेख किया है। इस कारण ऊँजी के पीर और तकी उनके गुरु नहीं हो सकते। ‘ घट घट है अविनासी सुनहु तकी तुम शेख ’ में उन्होंने तकी का नाम उस आदर से नहीं लिया है , जिस आदर से गुरु का नाम लिया जाता है और जिसके प्रभाव से कबीर ने अ संभव का भी संभव होना लिखा है– ‘ गुरु प्रसाद सूई कै नोकै हस्ती आवै जाहि।। ’ बल्कि वे तो उलटे तकी को ही उपदेश देते हुए जान पड़ते हैं। यद्यपि यह वाक्य इस ग्रन्थावली में क...

कबीर

पूरा नाम संत कबीरदास अन्य नाम कबीरा, कबीर साहब जन्म सन 1398 (लगभग) जन्म भूमि मृत्यु सन 1518 (लगभग) मृत्यु स्थान पालक माता-पिता नीरु और नीमा पति/पत्नी लोई संतान कमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री) कर्म भूमि कर्म-क्षेत्र समाज सुधारक कवि मुख्य रचनाएँ विषय सामाजिक भाषा शिक्षा निरक्षर नागरिकता भारतीय संबंधित लेख अन्य जानकारी कबीर का कोई प्रामाणिक जीवनवृत्त आज तक नहीं मिल सका, जिस कारण इस विषय में निर्णय करते समय, अधिकतर जनश्रुतियों, सांप्रदायिक ग्रंथों और विविध उल्लेखों तथा इनकी अभी तक उपलब्ध कतिपय फुटकल रचनाओं के अंत:साध्य का ही सहारा लिया जाता रहा है। इन्हें भी देखें मुख्य लेख: महात्मा कबीरदास के जन्म के समय में इन्हें भी देखें: साहित्यिक परिचय कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। उनकी कविता का एक-एक शब्द पाखंडियों के पाखंडवाद और धर्म के नाम पर ढोंग व स्वार्थपूर्ति की निजी दुकानदारियों को ललकारता हुआ आया और असत्य व अन्याय की पोल खोल धज्जियाँ उड़ाता चला गया। कबीर का अनुभूत सत्य अंधविश्वासों पर बारूदी पलीता था। सत्य भी ऐसा जो आज तक के परिवेश पर सवालिया निशान बन चोट भी करता है और खोट भी निकालता है।

Gurudev Ko Ang

Contents • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • Gurudev Ko Ang | गुरुदेव कौ अंग – कबीर ग्रंथावली दोस्तों ! आज हम पढ़ेंगे कबीर दास जी द्वारा रचित साखी भाग का “ Gurudev Ko Ang | गुरुदेव कौ अंग”। इसके महत्वपूर्ण 20 पद जो “Gurudev Ko Ang | गुरुदेव कौ अंग”के 20 पदों का अध्ययन करने जा रहे है । गुरुदेव कौ अंग” में 20 पद या दोहे लगे हैं। उन्हें पढ़ने से पहले हम इसके मूल-भाव को पढ़ेंगे, क्योंकि इसके मूल-भाव को ध्यान में रखते हुए हम आगे के 20 पदों का अध्ययन करेंगे। इसका सार क्या है ? क्या इसकी संवेदना है ? कबीर दास जी क्या संदेश देना चाहते हैं ? ये सभी जानने का प्रयास करेंगे। Gurudev Ko Ang | गुरुदेव कौ अंग का मूल-भाव भारतीय संत परंपरा में और विशेषकर निर्गुण भक्ति परंपरा में संतों द्वारा गुरु को विशेष महत्व दिया गया है। इस अंग में कबीर ने भी गुरु की महत्ता का वर्णन किया है । वह बताते हैं कि गुरु के समान कोई नहीं है। उनके समान अपना हितैषी और सगा कोई नहीं है। इसलिए मैं अपना तन-मन और सर्वस्व गुरु को समर्पित करता हूं। जो एक ही क्षण में अपनी कृपा से मनुष्य को देवता बनाने में समर्थ है, उनकी महिमा अनंत है। इसे वही समझ सकता है, जिसके ज्ञान रूपी चक्षु खुल गए हैं। गुरु की कृपा जिस व्यक्ति पर होती है, उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यहां तक कि कलयुग में व्याप्त पाप और दुष्कर्मों का प्रभाव भी उस पर नहीं पड़ता। गुरु ही अपने शिष्य के अंदर ज्ञान रूपी ज्योति जलाने में समर्थ है। गुरु ही सच्चा शूरवीर है। गुरु के द्वारा ज्ञान प्राप्त होते ही मनुष्य सांसारिक माया-बंधनों से मुक्त हो जाता है। Gurudev Ko Ang | गुरुदेव कौ अंग का मूल-भाव ऐसा गुरु बहुत मुश्किल से प्राप्त होता है परंतु यदि दुर्भाग्...

गुरु

गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान। बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥१॥ व्याख्या: अपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो | परन्तु यह सीख न मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये, गुरुपद - पोत में न लगे। गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय। कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥२॥ व्याख्या: व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना - जाना चाहिए | सद् गुरु कहते हैं कि संत वही है जो जन्म - मरण से पार होने के लिए साधना करता है | गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त। वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥३॥ व्याख्या: गुरु में और पारस - पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है। कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय। जनम - जनम का मोरचा, पल में डारे धोया॥४॥ व्याख्या: कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा है, उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है। जन्म - जन्मान्तरो की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं। गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि - गढ़ि काढ़ै खोट। अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥५॥ व्याख्या: गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार - मारकर और गढ़ - गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं। गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान। तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान॥६॥ व्याख्या: गुरु के समान कोई दाता नहीं, और शिष्य के सदृश याचक नहीं। त्रिलोक की सम्पत्ति से भी बढकर ज्ञान - दान गुरु ने दे दिया। जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर। एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शारीर॥७॥ व्याख्या: यदि गुरु वाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र...

Kabir Das Biography in Hindi

कबीर ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर किया, जिसके कारण वे समाज सुधारक कहलाने लगे। उन्होंने धर्म और जातिवाद से ऊपर उठकर नीति की बातें लिखीं, जिससे हिंदू और मुस्लिम धर्म के लोगों ने उनकी आलोचना की। लेकिन, जब कबीर की मृत्यु हुई, तो हिंदू और मुसलमान उन्हें अपने-अपने धर्म का संत मानते थे। कबीर दास भक्तिकाल के कवि थे जो वैराग्य धारण करते हुए निराकार ब्रह्म की पूजा का उपदेश देते हैं। कबीरदास का समय कवि रहीम के समय से पहले का है। कबीर दास का परिचय • नाम कबीर दास (Kabir Das) • जन्म 1398 ईश्वी, वाराणसी, उत्तर-प्रदेश • पालनहारी माता नीमा (किवदंती के अनुसार) • पालनहारी पिता नीरू (किवदंती के अनुसार) • विवाह स्थिति अविवाहित (विवादास्पद) • रचनाएँ साखी, सबद, रमैनी • प्रसिद्धि का कारण समाज-सुधारक, कवि, संत • मृत्यु 1518 ईस्वी, मगहर, उत्तर-प्रदेश • उम्र 120 वर्ष (विवादास्पद) कबीर दास का जन्म 1398 ईस्वी में भारत के प्रसिद्ध शहर काशी में हुआ था। लेकिन, कुछ इतिहासकारों का मानना है कि कबीर का जन्म 1440 ई. एक पौराणिक कथा के अनुसार कबीर का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था। विधवा महिला ने सार्वजनिक शर्म के डर से इस नवजात बच्चे को छोड़ने का फैसला किया। उसने अपने बच्चे को लहरतारा तालाब के किनारे एक टोकरी के अंदर छोड़ दिया। एक ही तालाब के पास नीरू और नीमा नाम का एक बुनकर जोड़ा रहता था। वे निःसंतान थे। बच्चे की चीख सुनकर नीरू और नीमा तालाब की ओर आ गए। उसने एक छोटे बच्चे को टोकरी में रोते हुए देखा। Read More: Mahatma Gandhi Biography in Hindi इस बालक को भगवान का दिया हुआ कुलदीपक मानकर उन्होंने इसे अपना पुत्र मानकर उसका पालन-पोषण किया। ऐसा माना जाता है कि नीरू और नीम...

कबीर दास दोहे

एकूण ९०६ दुख में सुमरिन सब करे, सुख मे करे न कोय । जो सुख मे सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥१॥ तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय । कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय ॥२॥ माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥३॥ गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय । बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥४॥ बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार । मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥५॥ कबिरा माला मनहि की, और संसारी भीख । माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥६॥ सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद । कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥७॥ साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय । मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥८॥ लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट । पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥९॥ जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥१०॥ जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप । जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥११॥ धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥१२॥ कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और । हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥१३॥ पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥१४॥ कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान । जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥१५॥ शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान । तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥१६॥ माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर । आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥१७॥ माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥१८॥ रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । हीना जन्म अनमो...

कबीर का जीवन परिचय। कबीरदास की रचनाएँ, भक्ति का स्वरूप, अनुभूति पक्ष ।Kabir Das Jeevan Parichay

Kabir Das Fact in Hindi • नाम - कबीर • जन्म संम्वत 1455 ज्येष्ठ मास पूर्णिमा • स्थान - काशी • निधन संवत् 1575 मगहर • गुरु - स्वामी रामानन्द • साहित्य - साखी , सबद , रमैनी सारतत्व बीजक ( संग्रक) • अनुयायी - भक्ति आंदोलन में ज्ञानाश्रयी शाखा के निर्गुण भक्ति धारा मन की शुद्धता न कि तन की धार्मिक सामंजस्य + समन्वय सामाजिक कुरीतियों का बहिष्कार ग्रहस्थ जीवन को महत्व • दार्शनिक विचार- निर्गुण ब्रह्मा ईश्वर निराकार कबीरदास का जीवन-परिचय • कबीरदास का व्यक्तित्व बहुआयामी रहा है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कबीर वैचारिक एवं सामाजिक चेतना की संवेदनशीलता के कारण अपने युग के समाज में इस कदर बसे हुए थे कि उन्हें हिन्दू एवं मुसलमान सभी समान रूप से पूज्य मानते थे। • कबीर समाज सुधारक , हिन्दू मुस्लिम धर्म में समन्वय स्थापित करने वाले , गरीब एवं कमजोर वर्ग के हितैषी , मानव धर्म सर्वोपरि मानने वाले , समाज में व्याप्त विसंगतियों के विरोधी , क्रांतिकारी और सामाजिक न्याय एवं समरसता के प्रबल समर्थक थे। उनके अनुयायियों ने उन्हें अवतार कहा है। • मध्ययुगीन अन्य संत कवियों की भांति कबीर के जीवन वृत्त को लेकर मतभेद हैं। कबीर चरित्र बोध एवं ' कबीर कसौटी ' ग्रन्थों के आधार पर कबीर का जन्म सम्वत् 1455 में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को काशी में हुआ था। • डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी इसी सम्वत् को कबीर का जन्म सम्वत् माना है। कबीर का पालन-पोषण जुलाहा दम्पत्ति नीरू और नीमा द्वारा किया गया। • कबीर गृहस्थ संत थे उनकी पत्नी का नाम लोई था , उनकी दो संतानें कमाल एवं कमाली थी। संवत् 1575 में मगहर में उनका निधन हुआ। • स्वामी रामानन्द कबीर के दीक्षा गुरु थे। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे , लेकिन "मसि कागज छुयों नहीं ,...

गुरु के दोहे अर्थ सहित

सूचना: दूसरे ब्लॉगर, Youtube चैनल और फेसबुक पेज वाले, कृपया बिना अनुमति हमारी रचनाएँ चोरी ना करे। हम कॉपीराइट क्लेम कर सकते है गुरु के दोहे अर्थ सहित गुरु का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है। आइये जानते हैं कबीर दास जी के लिखे ( Kabir Dohe On Guru In Hindi ) गुरु के दोहे अर्थ सहित में :- Kabir Dohe On Guru In Hindi गुरु के दोहे अर्थ सहित 1. जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु है मैं नाहिं। प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समांही।। अर्थ :- जब अहंकार रूपी मैं मेरे अन्दर समाया हुआ था तब मुझे गुरु नहीं मिले थे, अब गुरु मिल गये और उनका प्रेम रस प्राप्त होते ही मेरा अहंकार नष्ट हो गया। प्रेम की गली इतनी संकरी है कि इसमें एक साथ दो नहीं समा सकते अर्थात गुरु के रहते हुए अहंकार नहीं उत्पन्न हो सकता। 2. गुरु गोविन्द दोऊ एक हैं, दुजा सब आकार। आपा मैटैं हरि भजैं, तब पावैं दीदार।। अर्थ :- गुरु और गोविंद दोनो एक ही हैं केवळ नाम का अंतर है। गुरु का बाह्य(शारीरिक) रूप चाहे जैसा हो किन्तु अंदर से गुरु और गोविंद मे कोई अंतर नही है। मन से अहंकार कि भावना का त्याग करके सरल और सहज होकर आत्म ध्यान करने से सद्गुरू का दर्शन प्राप्त होगा। जिससे प्राणी का कल्याण होगा। जब तक मन में मैलरूपी “मैं और तू” की भावना रहेगी तब तक दर्शन नहीं प्राप्त हो सकता। 3. गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष। गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मैटैं न दोष।। अर्थ :- कबीर दास जी कहते है – हे सांसारिक प्राणीयों। बिना गुरु के ज्ञान का मिलना असंभव है। तब टतक मनुष्य अज्ञान रुपी अंधकार मे भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बन्धनो मे जकडा राहता है जब तक कि गुरु की कृपा नहीं प्राप्त होती। मोक्ष रुपी मार्ग दिखलाने वाले गुरु हैं। बिना गुर...

कबीर का जीवन परिचय। कबीरदास की रचनाएँ, भक्ति का स्वरूप, अनुभूति पक्ष ।Kabir Das Jeevan Parichay

Kabir Das Fact in Hindi • नाम - कबीर • जन्म संम्वत 1455 ज्येष्ठ मास पूर्णिमा • स्थान - काशी • निधन संवत् 1575 मगहर • गुरु - स्वामी रामानन्द • साहित्य - साखी , सबद , रमैनी सारतत्व बीजक ( संग्रक) • अनुयायी - भक्ति आंदोलन में ज्ञानाश्रयी शाखा के निर्गुण भक्ति धारा मन की शुद्धता न कि तन की धार्मिक सामंजस्य + समन्वय सामाजिक कुरीतियों का बहिष्कार ग्रहस्थ जीवन को महत्व • दार्शनिक विचार- निर्गुण ब्रह्मा ईश्वर निराकार कबीरदास का जीवन-परिचय • कबीरदास का व्यक्तित्व बहुआयामी रहा है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कबीर वैचारिक एवं सामाजिक चेतना की संवेदनशीलता के कारण अपने युग के समाज में इस कदर बसे हुए थे कि उन्हें हिन्दू एवं मुसलमान सभी समान रूप से पूज्य मानते थे। • कबीर समाज सुधारक , हिन्दू मुस्लिम धर्म में समन्वय स्थापित करने वाले , गरीब एवं कमजोर वर्ग के हितैषी , मानव धर्म सर्वोपरि मानने वाले , समाज में व्याप्त विसंगतियों के विरोधी , क्रांतिकारी और सामाजिक न्याय एवं समरसता के प्रबल समर्थक थे। उनके अनुयायियों ने उन्हें अवतार कहा है। • मध्ययुगीन अन्य संत कवियों की भांति कबीर के जीवन वृत्त को लेकर मतभेद हैं। कबीर चरित्र बोध एवं ' कबीर कसौटी ' ग्रन्थों के आधार पर कबीर का जन्म सम्वत् 1455 में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को काशी में हुआ था। • डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी इसी सम्वत् को कबीर का जन्म सम्वत् माना है। कबीर का पालन-पोषण जुलाहा दम्पत्ति नीरू और नीमा द्वारा किया गया। • कबीर गृहस्थ संत थे उनकी पत्नी का नाम लोई था , उनकी दो संतानें कमाल एवं कमाली थी। संवत् 1575 में मगहर में उनका निधन हुआ। • स्वामी रामानन्द कबीर के दीक्षा गुरु थे। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे , लेकिन "मसि कागज छुयों नहीं ,...