न्याय का सिद्धांत, जिसका मुख्य जोर निष्पक्षता पर है, के रूप में जाना जाता है

  1. कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया
  2. न्याय का सिद्धांत (theory of justice)
  3. न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सिद्धांत
  4. न्याय
  5. न्यायिक सिद्धांत
  6. न्याय दर्शन
  7. मानवतावाद
  8. न्याय का एक सिद्धांत इतिहास देखें अर्थ और सामग्री
  9. [Solved] रॉल्स के सिद्धांत में 'न्याय निष्पक्षता' क�
  10. न्याय का अर्थ, परिभाषा, प्रकार


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कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया

Table of Contents • • • • • • • • • • • • • • • • परिचय भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया” वाक्यांश का उपयोग किया गया है। यह दर्शाता है कि यदि संसद (पार्लियामेंट) द्वारा उचित प्रक्रिया का पालन करके कोई कानून पारित किया गया है, तो वह एक वैध कानून होगा। इस अवधारणा को लागू करने से संकेत मिलता है कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार किसी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकता है। मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) के फैसले के बाद, भारतीय न्यायपालिका ने एक व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए कानून की उचित प्रक्रिया को अमेरिकी अवधारणा के बराबर बनाने के लिए कानून द्वारा स्थापित वाक्यांश प्रक्रिया का एक उदार (लिबरल) अर्थ अपनाया। कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया की विभिन्न परिभाषाएं कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया वाक्यांश का शाब्दिक अर्थ यह दर्शाता है कि संसद या संबंधित प्राधिकारी (ऑथोरिटी) द्वारा अधिनियमित किया गया कानून तभी वैध है यदि उचित प्रक्रिया का पालन किया गया है। राजा सम्राट बनाम बेनोरी लाल शर्मा (1944) के मामले में, प्रिवी काउंसिल ने कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया को “पारंपरिक और अच्छी तरह से स्थापित आपराधिक प्रक्रिया” के रूप में वर्णित किया। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, ‘स्थापित’ शब्द का अर्थ है “कानून या अनुबंध द्वारा तय करना, निपटाना, आरंभ करना या विनियमित करना।”‘स्थापित’ शब्द का तात्पर्य एक ऐसे अधिकार से है जो सीमाएँ निर्धारित करता है। यह अधिकार, शब्द के अनुसार, या तो संसद हो सकता है या पार्टियों के बीच एक लिखित समझौता हो सकता है। परिणामस्वरूप, अनुच्छेद 21 में ‘कानून’ को ‘जस’ की परिभाषा निर्दिष्ट कर...

न्याय का सिद्धांत (theory of justice)

न्याय का सिद्धांत (theory of justice) ग्रीक राजनीतिक चिंतन के इतिहास में प्लेटो एक उच्च कोटि के आदर्शवादी राजनीतिक विचारक तथा नैतिकता के एक महान पुजारी थे। चूंकि सुकरात की मृत्यु से प्लेटो का ह्रदय लोकतंत्र से भर गया था। अतः अपनी न्याय धारणा के आधार पर प्लेटो एक शासनतंत्र की कल्पना करने लगा, जिसका संचालन श्रेष्ठ व्यक्तियों द्वारा होता हो। न्याय क्या है? प्लेटो की मुख्य समस्याएं रही है और इसी समस्या के समाधान के लिए 40 वर्ष की अवस्था में प्लेटो ने republic की रचना की, जिसका शीर्षक concerning justice या “न्याय के संबंध में है।” प्लेटो ने आदर्श राज्य का निर्माण ही एक निश्चित उद्देश्य से किया और वह उद्देश्य एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना करना है जिसमें सभी वैयक्तिक , सामाजिक एवं राजनीतिक संस्थाएं न्याय से अनुप्राणित हो। प्लेटो ने आलोचक व दार्शनिक दोनों के रूप में कार्य किया है क्योंकि अपने से पूर्ववर्ति विचारकों के न्याय संबंधी विचारों की आलोचना करते हुए उसने न्याय के अपने सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। प्लेटो न्याय को केवल नियमों के पालन तक सीमित नहीं मानता था , क्योंकि न्याय मानव आत्मा की अंतःप्रकृति पर आधारित है। यह दुर्बल के ऊपर सबल की विजय नहीं है, क्योंकि यह तो दुर्बल की सबल से रक्षा करता है। प्लेटो के अनुसार एक न्यायोचित राज्य सभी की अच्छाई की ओर ध्यान रखकर प्राप्त किया जा सकता है। एक न्यायोचित समाज में शासक , सैन्य वर्ग तथा उत्पादक वर्ग सभी वह करते हैं जो उन्हें करना चाहिए। इस प्रकार के समाज में शासक बुद्धिमान होते हैं, सैनिक बहादुर होते हैं, और उत्पादक आत्मनियंत्रण या संयम का पालन करते हैं। सुकरात के माध्यम से इन विचारों को व्यक्त करने से पूर्व प्लेटो ने उस समय व...

न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सिद्धांत

टैग्स: • • प्रीलिम्स के लिये: अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन 2020, एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ 1981, वर्ष 1993 का द्वितीय न्यायाधीश केस, न्यायिक चार्टर मेन्स के लिये: न्यायपालिका की स्वतंत्रता चर्चा में क्यों? हाल ही में उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश ने मुख्य बिंदु: • उपरोक्त घटनाक्रम को देखें तो कार्यपालिका और न्यायपालिका आपस में मेल-जोल प्रतीत होता है जबकि भारतीय संविधान में दोनों की स्वतंत्रता की बात कही गई है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता (Independence of The Judiciary): • न्यायपालिका की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का आधार स्तम्भ है। इसमें तीन आवश्यक शर्तें निहित हैं- • न्यायपालिका को सरकार के अन्य विभागों के हस्तक्षेप से उन्मुक्त होना चाहिये। • न्यायपालिका के निर्णय व आदेश कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका के हस्तक्षेप से मुक्त होने चाहिये। • न्यायाधीशों को भय या पक्षपात के बिना न्याय करने की स्वतंत्रता होनी चाहिये। एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ 1981 (S.P. Gupta vs Union Of India 1981) • वर्ष 1981 के एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ मामले में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने कहा था कि न्यायाधीशों को आर्थिक या राजनीतिक शक्ति के सामने सख्त होना चाहिये और उन्हें विधि के शासन (Rule of Law) के मूल सिद्धांत को बनाए रखना चाहिये। • विधि का शासन न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सिद्धांत है जो वास्तविक सहभागी लोकतंत्र की स्थापना करने, एक गतिशील अवधारणा के रूप में कानून के शासन को बनाए रखने और समाज के कमज़ोर वर्गों को सामाजिक न्याय (Social Justice) प्रदान करने हेतु महत्वपूर्ण है। विधि का शासन (Rule of law): • विधि का शासन या कानून का शासन (Rule of law) का अर्थ है कि कानून सर्वोपरि ह...

न्याय

अनुक्रम • 1 न्याय-विषयक राजनीतिक विचार • 2 सन्दर्भ • 3 इन्हें भी देखें • 4 बाहरी कड़ियाँ न्याय-विषयक राजनीतिक विचार [ ] यह तय करना मानव-जाति के लिए हमेशा से एक समस्या रहा है कि न्याय का ठीक-ठीक अर्थ क्या होना चाहिए और लगभग सदैव उसकी व्याख्या समय के संदर्भ में की गई है। मोटे तौर पर उसका अर्थ यह रहा है कि अच्छा क्या है इसी के अनुसार इससे संबंधित मान्यता में फेर-बदल होता रहा है। जैसा कि डी.डी. रैफल का मत है- न्याय द्विमुख है, जो एक साथ अलग-अलग चेहरे दिखलाता है। वह वैधिक भी है और नैतिक भी। उसका संबंध सामाजिक व्यवस्था से है और उसका सरोकार जितना व्यक्तिगत अधिकारों से है उतना ही समाज के अधिकारों से भी है।... वह रूढ़िवादी (अतीत की ओर अभिमुख) है, लेकिन साथ ही सुधारवादी (भविष्य की ओर अभिमुख) भी है। न्याय के अर्थ का निर्णय करने का प्रयत्न सबसे पहले यूनानियों और रोमनों ने किया (यानी जहाँ तक पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन का संबंध है)। यूनानी दार्शनिक रोमनों तथा स्टोइकों (समबुद्धिवादियों) ने न्याय की एक किंचित् भिन्न कल्पना विकसित की। उनका मानना था कि न्याय कानूनों और प्रथाओं से निसृत नहीं होता बल्कि उसे तर्क-बुद्धि से ही प्राप्त किया जा सकता है। न्याय दैवी होगा और सबके लिए समान। समाज के कानूनों को इन कानूनों के अनुरूप होना चाहिए; तभी उनका कोई मतलब होगा, अन्यथा नहीं। मानव-निर्मित कानून वास्तव में कानून हो, इसके लिए यह आवश्यक है कि वह इस कानून और प्राकृतिक न्याय की कल्पना से मेल खाए। इस प्राकृतिक न्याय की कल्पना का विकास सर्वप्रथम स्टोइकों ने किया था और बाद में उसे रोमन कैथोलिक ईसाई पादरियों ने अपना लिया। इस न्याय की दृष्टि में सभी मनुष्य समान थे। अपनी कृति इन्स्टीच्यूट्स में जस्टिनियन तर्क-ब...

न्यायिक सिद्धांत

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न्याय दर्शन

न्याय दर्शन भारत के छः वैदिक दर्शनों में एक जिन साधनों से हमें ज्ञेय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, उन्हीं साधनों को ‘न्याय’ की संज्ञा दी गई है। देवराज ने 'न्याय' को परिभाषित करते हुए कहा है- नीयते विवक्षितार्थः अनेन इति न्यायः अर्थ: जिस साधन के द्वारा हम अपने विवक्षित (ज्ञेय) तत्त्व के पास पहुँच जाते हैं, उसे जान पाते हैं, वही साधन न्याय है। दूसरे शब्दों में, जिसकी सहायता से किसी सिद्धान्त पर पहुँचा जा सके, उसे न्याय कहते हैं। प्रमाणों के आधार पर किसी निर्णय पर पहुँचना ही न्याय है। यह मुख्य रूप से प्रमाणैर्थपरीक्षणं न्यायः (प्रमाणों द्वारा अर्थ (सिद्धान्त) का परीक्षण ही न्याय है।) इस दृष्टि से जब कोई मनुष्य किसी विषय में कोई सिद्धान्त स्थिर करता है तो वहाँ न्याय की सहायता अपेक्षित होती है। इसलिये न्याय-दर्शन विचारशील मानव समाज की मौलिक आवश्यकता और उद्भावना है। उसके बिना न मनुष्य अपने विचारों एवं सिद्धान्तों को परिष्कृत एवं सुस्थिर कर सकता है न प्रतिपक्षी के सैद्धान्तिक आघातों से अपने सिद्धान्त की रक्षा ही कर सकता है। न्यायशास्त्र उच्चकोटि के • १. प्रमाण – ये मुख्य चार हैं – • २. प्रमेय – ये बारह हैं – आत्मा, शरीर, इन्द्रियाँ, अर्थ , बुद्धि / ज्ञान / उपलब्धि , मन, प्रवृत्ति , दोष, प्रेतभाव , फल, दुःख और अपवर्ग। • ३. संशय • ४. प्रयोजन • ५. दृष्टान्त • ६. सिद्धान्त – चार प्रकार के है: सर्वतन्त्र सिद्धान्त , प्रतितन्त्र सिद्धान्त, अधिकरण सिद्धान्त और अभुपगम सिद्धान्त। • ७. अवयव • ८. तर्क • ९. निर्णय • १०. वाद • ११. जल्प • १२. वितण्डता • १३. हेत्वाभास – ये पांच प्रकार के होते हैं: सव्यभिचार, विरुद्ध, प्रकरणसम, साध्यसम और कालातीत। • १४. छल – वाक् छल , सामान्य छल और उपचार...

मानवतावाद

यह लेख human-centered philosophy के बारे में है। अन्य प्रयोगों के लिए, मानवतावाद मानव मूल्यों और चिंताओं पर ध्यान केंद्रित करने वाला अध्ययन, दर्शन या अभ्यास का एक दृष्टिकोण है। इस शब्द के कई मायने हो सकते हैं, उदाहरण के लिए: • एक ऐतिहासिक आंदोलन, विशेष रूप से इतालवी पुनर्जागरण के साथ जुड़ा हुआ। • शिक्षा के लिए एक ऐसा दृष्टिकोण जिसमें छात्रों को जानकारी देने के लिए साहित्यिक अर्थों का उपयोग होता है या मानविकी पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। • दर्शन और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में कई तरह के दृष्टिकोण जो 'मानव स्वभाव' के कुछ भावों की पुष्टि करता है (मानवतावाद-विरोध के विपरीत). • एक धर्मनिरपेक्ष विचारधारा जो बाद की व्याख्या में धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद को एक विशिष्ट मानववादी जीवन के उद्देश्य के रूप में जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। मानवतावादी (ह्युमनिस्ट), मानवतावाद (ह्यूमनिज्म) और मानवतावाद संबंधी (ह्युमनिस्टिक) का संबंध सीधे तौर पर और सहज रूप से साहित्यिक संस्कृति से है। अनुक्रम • 1 इतिहास • 1.1 पूर्ववर्ती • 1.1.1 प्राचीन यूनान • 1.1.2 एशिया • 1.2 पुनर्जागरण • 1.2.1 स्रोतों की ओर वापसी • 1.2.2 परिणाम • 1.3 पुनर्जागरण से आधुनिक मानवतावाद तक • 1.4 19वीं और 20वीं सदियाँ • 2 धर्म की ओर रुख • 3 ज्ञान • 4 आशावाद • 5 मानवतावाद (जीवन दृष्टि) • 6 बहस की कला (पोलेमिक्स) • 7 अन्य स्वरूप • 7.1 शैक्षणिक मानवतावाद • 7.2 समग्र मानवतावाद • 8 इन्हें भी देखें • 8.1 सिद्धान्त और दर्शन शास्त्र से संबंधित • 8.2 संगठन • 8.3 अन्य • 9 टिप्पणियां • 10 सन्दर्भ • 11 बाहरी कड़ियाँ • 11.1 मानवतावाद के लिए परिचय • 11.2 घोषणापत्र और बयान • 11.3 वेब लेख (वेब आर्टिकल्स) • 11.4 वेब किताबें • 11.5 वेब परियोजना...

न्याय का एक सिद्धांत इतिहास देखें अर्थ और सामग्री

320/.01/1 21 एलसी क्लास JC578 .R38 1999 परिणामी सिद्धांत को 1971 में इसके मूल प्रकाशन के बाद के दशकों में कई बार चुनौती दी गई और परिष्कृत किया गया। 1985 के निबंध " पहली बार 1971 में प्रकाशित, ए थ्योरी ऑफ जस्टिस को 1975 में संशोधित किया गया था, जबकि अनुवादित संस्करण 1990 के दशक में जारी किए जा रहे थे, इसे 1999 में और संशोधित किया गया था। 2001 में, रॉल्स ने जस्टिस एज़ फेयरनेस: ए रिस्टेटमेंट नामक एक अनुवर्ती अध्ययन प्रकाशित किया । मूल संस्करण 2004 में फिर से जारी किया गया था। "मूल स्थिति" रॉल्स मूल स्थिति कहता है ; जिसमें हर कोई "... कोई भी समाज में उसकी जगह, उसकी वर्ग स्थिति या सामाजिक स्थिति को नहीं जानता है, और न ही प्राकृतिक संपत्ति और क्षमताओं, उसकी बुद्धि, ताकत और इस तरह के वितरण में अपने भाग्य को जानता है। मैं यह भी मानूंगा कि पार्टियां अच्छे के बारे में उनकी धारणाओं या उनकी विशेष मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों को नहीं जानते। न्याय के सिद्धांतों को अज्ञानता के पर्दे के पीछे चुना जाता है।" रॉल्स के अनुसार, स्वयं के बारे में इन विवरणों की अज्ञानता उन सिद्धांतों को जन्म देगी जो सभी के लिए उचित हैं। यदि कोई व्यक्ति यह नहीं जानता है कि वह अपने स्वयं के कल्पित समाज में कैसे समाप्त होगा, तो वह शायद किसी एक वर्ग के लोगों को विशेषाधिकार नहीं देगा, बल्कि न्याय की एक ऐसी योजना विकसित करेगा जो सभी के साथ उचित व्यवहार करे। विशेष रूप से, दावा है कि में उन लोगों के रोंव्ल्स मूल स्थिति सभी एक को अपना लिया "वे ऐसे सिद्धांत हैं जो अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए संबंधित तर्कसंगत और स्वतंत्र व्यक्ति समानता की प्रारंभिक स्थिति में अपने संघ की शर्तों के मूल सिद्धांतों को परिभाषित करने के रूप मे...

[Solved] रॉल्स के सिद्धांत में 'न्याय निष्पक्षता' क�

जॉन रॉल्स का निबंध न्याय के रूप में निष्पक्षता: राजनीतिक नहीं आध्यात्मिक, 1985। उन्होंने इसमें न्याय के अपने दृष्टिकोण को रेखांकित किया। इसे स्वतंत्रता और समानता की दो बुनियादी अवधारणाओं में विभाजित किया गया है: अवसर की उचित समानता और अंतर सिद्धांत। Key Points • सिद्धांतों को रॉल्स द्वारा शाब्दिक प्राथमिकता में व्यवस्थित किया गया है, जिसमें स्वतंत्रता सिद्धांत, अवसर की उचित समानता और अंतर सिद्धांत को प्राथमिकता दी जाती है। यदि सिद्धांत व्यवहार में विरोधाभासी हैं, तो यह आदेश सिद्धांतों की प्राथमिकता को स्थापित करता है। • दूसरी ओर, सिद्धांत, न्याय की एकल, पूर्ण समझ के रूप में एक साथ कार्य करने के लिए हैं - 'निष्पक्षता के रूप में न्याय' - न कि व्यक्तिगत रूप से। इन नियमों का हमेशा यह सुनिश्चित करने के लिए पालन किया जाता है कि "कम से कम सुविधा वाले" को नुकसान पहुंचाने या अवहेलना करने के बजाय सहायता मिलती है। Additional Informationरॉल्स के सिद्धांत का पहला उद्देश्य सामाजिक वस्तुओं की एक निष्पक्ष वितरण प्रणाली की स्थापना करके एक सुव्यवस्थित और सुव्यवस्थित समुदाय को प्राप्त करना है। रॉल्स के अनुसार, एक निष्पक्ष वितरण प्रणाली को इन संसाधनों द्वारा उत्पन्न कल्याण के बजाय व्यक्तियों को वितरित मौलिक सामाजिक वस्तुओं की मात्रा को प्राथमिकता देनी चाहिए। • पिछले तीन दशकों में वितरणात्मक न्याय का सबसे व्यापक रूप से चर्चित सिद्धांत जॉन रॉल्स द्वारा अपने मौलिक कार्य में प्रस्तावित किया गया है। न्याय का एक सिद्धांत। (रॉल्स 1971) रॉल्स ने न्याय के निम्नलिखित दो सिद्धांत प्रस्तावित किए: • प्रत्येक व्यक्ति को सभी के लिए समान स्वतंत्रता प्रणाली के अनुकूल समान बुनियादी स्वतंत्रता की सबसे व्यापक सम...

न्याय का अर्थ, परिभाषा, प्रकार

उत्तर-- न्याय का अर्थ (nyay kya hai) न्याय अंग्रेजी भाषा के Justic (जस्टिस' का हिंदी रूपांतरण हैं। एक शाब्दिक रूप में 'जस्टिस' लैटिन भाषा के जस (Jus) शब्द से बना है। जिसका अर्थ है 'बंधना' या बाँधना इस प्रकार न्याय से तात्पर्य उस सामाजिक व्यवस्था से है जिसमें परस्पर संबंधों से बंधे रहते हैं। साधारण अर्थ में न्याय उस अवस्था का नाम है, जिसमें उचित व्यवस्था हो, व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों में सामंजस्य हो, निष्पक्षता, स्वार्थहीनता और तर्कसंगतता हो। जिसमें व्यक्ति अपने-अपने अधिकारों व कर्तव्यों का पालन करते हों। प्लेटो के अनुसार, " न्याय मानव आत्मा की उचित अवस्था और मानवीय स्वभाव की प्राकृतिक माँग है।" न्याय शब्द की कोई एक सुनिश्चित परिभाषा प्रस्तुत करना थोड़ा कठिन हैं। प्रथम, न्याय शब्द को विभिन्न लोग विभिन्न समयों पर विभिन्न अर्थ प्रदान करते हैं। केवल यही नहीं, इसके निहितार्थ प्रत्येक व्यक्ति के मत में एवं परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में भिन्न होते हैं। दूसरे, न्याय का विचार गतिशील वस्तु की तरह हैं। ऐसी स्थिति में, इसके निहितार्थ समय के साथ परिवर्तित होते रहते है। जो अतीत में पहले कभी न्याय हुआ करता था वर्तमान में वह अन्याय हो सकता हैं। उसके व्यावहारिक रूपों के साथ न्याय के भाववाचक अर्थों की संगति स्थापित करने से एक और कठिनाई उत्पन्न होती हैं। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति नैतिक न्याय अथवा ईश्वरीय न्याय की बात कर सकता हैं, परन्तु व्यावहारिक मानकों के किसी नमूने के अनुरूप इसे बनाना कठिन है और इसी कारण यह व्यावहारिक रूप में लागू करने योग्य नही हैं। इसलिए, हम पाॅटर के इस मत का अनुमोदन कर सकते हैं कि," अधिकांश लोग ऐसा सोचते हैं कि वे न्याय का अर्थ समझते हैं परन्तु वास्तव में उनकी ध...