धर्मवीर

  1. अंधा युग
  2. Hindi Kavita:धर्मवीर भारती की कविता 'इस डगर पर मोह सारे तोड़, ले चुका कितने अपरिचित मोड़'
  3. धर्मवीर भारती
  4. अंधा युग
  5. Hindi Kavita:धर्मवीर भारती की कविता 'इस डगर पर मोह सारे तोड़, ले चुका कितने अपरिचित मोड़'
  6. अंधा युग
  7. Hindi Kavita:धर्मवीर भारती की कविता 'इस डगर पर मोह सारे तोड़, ले चुका कितने अपरिचित मोड़'
  8. धर्मवीर भारती
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अंधा युग

अनुक्रम • 1 कथानक • 2 पात्र • 3 मंचन • 4 विशेषताएं • 5 बाहरी कड़ियाँ कथानक [ ] इसका कथानक महाभारत के अठारहवें दिन से लेकर श्रीकृष्ण की मृत्यु तक के क्षण पर आधारित है। पात्र [ ] इस गीतिनाट्य में विभिन्न पात्रों की योजना की गई है। जैसे- अश्वत्थामा, गान्धारी, धृतराष्ट्र, कृतवर्मा, संजय, वृद्ध याचक, प्रहरी-1, व्यास, विदुर, युधिष्ठिर, कृपाचार्य, युयुत्सु, गूँगा भिखारी, प्रहरी-2, बलराम, कृष्ण इत्यादि। मंचन [ ] यह् नाटक चार दशक से भारत की प्रत्येक भाषा में मंचित हो रहा है। विशेषताएं [ ] इस गीतिनाट्य का आरंभ मंगलाचरण से होता है। यह अंकों में विभाजित कृति है। 'कौरव नगरी' इस कृति का प्रथम अंक है। इसके दूसरे अंक का प्रारंभ 'पशु का उदय' नामक अध्याय से होता है। 'अश्वत्थामा का अर्द्धसत्य' इसका तीसरा अंक है। चौथे अंक का आरंभ 'गांधारी का शाप' से होता है। 'विजय:एक क्रमिक आत्महत्या' इसका पाँचवाँ अंक है। अंतिम अध्याय 'समापन' 'प्रभु की मृत्यु' के साथ ही इस नाट्य की समाप्ति होती है। इसे नए संदर्भ और कुछ नवीन अर्थों के साथ लिखा गया है। इसमें धर्मवीर भारती ने रंगमंच निर्देशको के लिए ढेर सारी संभावनाएँ छोड़ी हैं। कथानक की समकालीनता नाटक को नवीन व्याख्या और नए अर्थ देती है। नाट्य प्रस्तुति में कल्पनाशील निर्देशक नए आयाम तलाश लेता है। इस नाटक में कृष्ण के चरित्र के नए आयाम और अश्वत्थामा का ताकतवर चरित्र है, जिसमें वर्तमान युवा की कुंठा और संघर्ष उभरकर सामने आते हैं। बाहरी कड़ियाँ [ ] •

Hindi Kavita:धर्मवीर भारती की कविता 'इस डगर पर मोह सारे तोड़, ले चुका कितने अपरिचित मोड़'

ले चुका कितने अपरिचित मोड़ पर मुझे लगता रहा हर बार कर रहा हूँ आइनों को पार दर्पणों में चल रहा हूँ मैं चौखटों को छल रहा हूँ मैं सामने लेकिन मिली हर बार फिर वही दर्पण मढ़ी दीवार फिर वही झूठे झरोखे द्वार वही मंगल चिन्ह वन्दनवार किन्तु अंकित भीत पर, बस रंग से अनगिनित प्रतिबिंब हँसते व्यंग्य से फिर वही हारे कदम की मोड़ फिर वही झूठे अपरिचित मोड़ लौटकर फिर लौटकर आना वहीं किन्तु इनसे छूट भी पाना नहीं टूट सकता, टूट सकता काश यह अजब-सा दर्पणों का पाश दर्द की यह गाँठ कोई खोलता दर्पणों के पार कुछ तो बोलता यह निरर्थकता सही जाती नहीं लौटकर, फिर लौटकर आना वहीं राह में कोई न क्या रच पाऊंगा अंत में क्या मैं यहीं बच जाऊंगा विंब आइनों में कुछ भटका हुआ चौखटों के क्रास पर लटका हुआ। विशेष • आज का विचार: कुँवर नारायण • Hindi Kavita: केदारनाथ सिंह की कविता 'ठंड से नहीं मरते शब्द, वे मर जाते हैं साहस की कमी से' • दीपक जायसवाल: जिन बच्चों की माँएँ नहीं होतीं • कविता कादम्बरी की रचना- मेरे बेटे, कभी इतने ऊँचे मत होना • Hasya Poetry: हुल्लड़ मुरादाबादी के दोहे • Urdu Ghazal: कृष्ण बिहारी नूर की ग़ज़ल 'बिछड़ के तुझ से न जीते हैं और न मरते हैं'

धर्मवीर भारती

धर्मवीर भारती (Dharmvir Bharti) का Dharmvir Bharti Biography / Dharmvir Bharti Jeevan Parichay / Dharmvir Bharti Jivan Parichay / धर्मवीर भारती : नाम धर्मवीर भारती जन्म 25 दिसम्बर, 1926 जन्मस्थान प्रयागराज, उत्तर प्रदेश मृत्यु 4 सितम्बर,1997 मृत्युस्थान मुम्बई पेशा लेखक, पत्रकार माता चंदादेवी पिता चिरंजीव लाल वर्मा पुत्र किंशुक भारती पुत्री परमिता, प्रज्ञा भारती प्रमुख रचनाएँ गुनाहों का देवता, सूरज का सातवाँ घोड़ा, अंधा-युग, कनुप्रिया, ठण्डा लोहा, अन्धा-युग सात गीत वर्ष, नदी प्यासी थी, कहनी-अनकहनी, ठेले पर हिमालय, पश्यन्ती, चाँद और टूटे हुए लोग भाषा परिमार्जित खड़ीबोली; मुहावरों, लोकोक्तियों, देशज तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग शैली भावात्मक, वर्णनात्मक, शब्द चित्रात्मक आलोचनात्मक हास्य व्यंग्यात्मक साहित्य काल विधाएं साहित्य में स्थान एक उत्तम निबन्धकार, उपन्यासकार, कवि और सर्वश्रेष्ठ नाटककार सम्पादन धर्मयुग सप्ताहिक पत्रिका पुरस्कार पद्मश्री, हल्दीघाटी श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार (1984), व्यास सम्मान, सर्वश्रेष्ठ नाटककार पुरुषकार संगीत नाटक अकादमी दिल्ली (1981), भारत भारती पुरस्कार (1989), महाराष्ट्र गौरव (1994) धर्मवीर भारती का जीवन परिचय महान् गद्य-लेखक एवं उच्चकोटि के पत्रकार डॉ० धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसम्बर, सन् 1926 को इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम०ए० और पी०एच०डी० की उपाधियाँ प्राप्त की। उन्होंने कुछ वर्षों तक वहीं से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पत्र ‘संगम’ का संपादन किया। धर्मवीर भारती इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग में प्राध्यापक भी रहे। सन् 1959 में वे मुम्बई से प्रकाशित होनेवाले हिन्दी के...

अंधा युग

अनुक्रम • 1 कथानक • 2 पात्र • 3 मंचन • 4 विशेषताएं • 5 बाहरी कड़ियाँ कथानक [ ] इसका कथानक महाभारत के अठारहवें दिन से लेकर श्रीकृष्ण की मृत्यु तक के क्षण पर आधारित है। पात्र [ ] इस गीतिनाट्य में विभिन्न पात्रों की योजना की गई है। जैसे- अश्वत्थामा, गान्धारी, धृतराष्ट्र, कृतवर्मा, संजय, वृद्ध याचक, प्रहरी-1, व्यास, विदुर, युधिष्ठिर, कृपाचार्य, युयुत्सु, गूँगा भिखारी, प्रहरी-2, बलराम, कृष्ण इत्यादि। मंचन [ ] यह् नाटक चार दशक से भारत की प्रत्येक भाषा में मंचित हो रहा है। विशेषताएं [ ] इस गीतिनाट्य का आरंभ मंगलाचरण से होता है। यह अंकों में विभाजित कृति है। 'कौरव नगरी' इस कृति का प्रथम अंक है। इसके दूसरे अंक का प्रारंभ 'पशु का उदय' नामक अध्याय से होता है। 'अश्वत्थामा का अर्द्धसत्य' इसका तीसरा अंक है। चौथे अंक का आरंभ 'गांधारी का शाप' से होता है। 'विजय:एक क्रमिक आत्महत्या' इसका पाँचवाँ अंक है। अंतिम अध्याय 'समापन' 'प्रभु की मृत्यु' के साथ ही इस नाट्य की समाप्ति होती है। इसे नए संदर्भ और कुछ नवीन अर्थों के साथ लिखा गया है। इसमें धर्मवीर भारती ने रंगमंच निर्देशको के लिए ढेर सारी संभावनाएँ छोड़ी हैं। कथानक की समकालीनता नाटक को नवीन व्याख्या और नए अर्थ देती है। नाट्य प्रस्तुति में कल्पनाशील निर्देशक नए आयाम तलाश लेता है। इस नाटक में कृष्ण के चरित्र के नए आयाम और अश्वत्थामा का ताकतवर चरित्र है, जिसमें वर्तमान युवा की कुंठा और संघर्ष उभरकर सामने आते हैं। बाहरी कड़ियाँ [ ] •

Hindi Kavita:धर्मवीर भारती की कविता 'इस डगर पर मोह सारे तोड़, ले चुका कितने अपरिचित मोड़'

ले चुका कितने अपरिचित मोड़ पर मुझे लगता रहा हर बार कर रहा हूँ आइनों को पार दर्पणों में चल रहा हूँ मैं चौखटों को छल रहा हूँ मैं सामने लेकिन मिली हर बार फिर वही दर्पण मढ़ी दीवार फिर वही झूठे झरोखे द्वार वही मंगल चिन्ह वन्दनवार किन्तु अंकित भीत पर, बस रंग से अनगिनित प्रतिबिंब हँसते व्यंग्य से फिर वही हारे कदम की मोड़ फिर वही झूठे अपरिचित मोड़ लौटकर फिर लौटकर आना वहीं किन्तु इनसे छूट भी पाना नहीं टूट सकता, टूट सकता काश यह अजब-सा दर्पणों का पाश दर्द की यह गाँठ कोई खोलता दर्पणों के पार कुछ तो बोलता यह निरर्थकता सही जाती नहीं लौटकर, फिर लौटकर आना वहीं राह में कोई न क्या रच पाऊंगा अंत में क्या मैं यहीं बच जाऊंगा विंब आइनों में कुछ भटका हुआ चौखटों के क्रास पर लटका हुआ। विशेष • आज का विचार: कुँवर नारायण • Hindi Kavita: केदारनाथ सिंह की कविता 'ठंड से नहीं मरते शब्द, वे मर जाते हैं साहस की कमी से' • दीपक जायसवाल: जिन बच्चों की माँएँ नहीं होतीं • कविता कादम्बरी की रचना- मेरे बेटे, कभी इतने ऊँचे मत होना • Hasya Poetry: हुल्लड़ मुरादाबादी के दोहे • Urdu Ghazal: कृष्ण बिहारी नूर की ग़ज़ल 'बिछड़ के तुझ से न जीते हैं और न मरते हैं'

अंधा युग

अनुक्रम • 1 कथानक • 2 पात्र • 3 मंचन • 4 विशेषताएं • 5 बाहरी कड़ियाँ कथानक [ ] इसका कथानक महाभारत के अठारहवें दिन से लेकर श्रीकृष्ण की मृत्यु तक के क्षण पर आधारित है। पात्र [ ] इस गीतिनाट्य में विभिन्न पात्रों की योजना की गई है। जैसे- अश्वत्थामा, गान्धारी, धृतराष्ट्र, कृतवर्मा, संजय, वृद्ध याचक, प्रहरी-1, व्यास, विदुर, युधिष्ठिर, कृपाचार्य, युयुत्सु, गूँगा भिखारी, प्रहरी-2, बलराम, कृष्ण इत्यादि। मंचन [ ] यह् नाटक चार दशक से भारत की प्रत्येक भाषा में मंचित हो रहा है। विशेषताएं [ ] इस गीतिनाट्य का आरंभ मंगलाचरण से होता है। यह अंकों में विभाजित कृति है। 'कौरव नगरी' इस कृति का प्रथम अंक है। इसके दूसरे अंक का प्रारंभ 'पशु का उदय' नामक अध्याय से होता है। 'अश्वत्थामा का अर्द्धसत्य' इसका तीसरा अंक है। चौथे अंक का आरंभ 'गांधारी का शाप' से होता है। 'विजय:एक क्रमिक आत्महत्या' इसका पाँचवाँ अंक है। अंतिम अध्याय 'समापन' 'प्रभु की मृत्यु' के साथ ही इस नाट्य की समाप्ति होती है। इसे नए संदर्भ और कुछ नवीन अर्थों के साथ लिखा गया है। इसमें धर्मवीर भारती ने रंगमंच निर्देशको के लिए ढेर सारी संभावनाएँ छोड़ी हैं। कथानक की समकालीनता नाटक को नवीन व्याख्या और नए अर्थ देती है। नाट्य प्रस्तुति में कल्पनाशील निर्देशक नए आयाम तलाश लेता है। इस नाटक में कृष्ण के चरित्र के नए आयाम और अश्वत्थामा का ताकतवर चरित्र है, जिसमें वर्तमान युवा की कुंठा और संघर्ष उभरकर सामने आते हैं। बाहरी कड़ियाँ [ ] •

Hindi Kavita:धर्मवीर भारती की कविता 'इस डगर पर मोह सारे तोड़, ले चुका कितने अपरिचित मोड़'

ले चुका कितने अपरिचित मोड़ पर मुझे लगता रहा हर बार कर रहा हूँ आइनों को पार दर्पणों में चल रहा हूँ मैं चौखटों को छल रहा हूँ मैं सामने लेकिन मिली हर बार फिर वही दर्पण मढ़ी दीवार फिर वही झूठे झरोखे द्वार वही मंगल चिन्ह वन्दनवार किन्तु अंकित भीत पर, बस रंग से अनगिनित प्रतिबिंब हँसते व्यंग्य से फिर वही हारे कदम की मोड़ फिर वही झूठे अपरिचित मोड़ लौटकर फिर लौटकर आना वहीं किन्तु इनसे छूट भी पाना नहीं टूट सकता, टूट सकता काश यह अजब-सा दर्पणों का पाश दर्द की यह गाँठ कोई खोलता दर्पणों के पार कुछ तो बोलता यह निरर्थकता सही जाती नहीं लौटकर, फिर लौटकर आना वहीं राह में कोई न क्या रच पाऊंगा अंत में क्या मैं यहीं बच जाऊंगा विंब आइनों में कुछ भटका हुआ चौखटों के क्रास पर लटका हुआ। विशेष • आज का विचार: कुँवर नारायण • Hindi Kavita: केदारनाथ सिंह की कविता 'ठंड से नहीं मरते शब्द, वे मर जाते हैं साहस की कमी से' • दीपक जायसवाल: जिन बच्चों की माँएँ नहीं होतीं • कविता कादम्बरी की रचना- मेरे बेटे, कभी इतने ऊँचे मत होना • Hasya Poetry: हुल्लड़ मुरादाबादी के दोहे • Urdu Ghazal: कृष्ण बिहारी नूर की ग़ज़ल 'बिछड़ के तुझ से न जीते हैं और न मरते हैं'

धर्मवीर भारती

धर्मवीर भारती (Dharmvir Bharti) का Dharmvir Bharti Biography / Dharmvir Bharti Jeevan Parichay / Dharmvir Bharti Jivan Parichay / धर्मवीर भारती : नाम धर्मवीर भारती जन्म 25 दिसम्बर, 1926 जन्मस्थान प्रयागराज, उत्तर प्रदेश मृत्यु 4 सितम्बर,1997 मृत्युस्थान मुम्बई पेशा लेखक, पत्रकार माता चंदादेवी पिता चिरंजीव लाल वर्मा पुत्र किंशुक भारती पुत्री परमिता, प्रज्ञा भारती प्रमुख रचनाएँ गुनाहों का देवता, सूरज का सातवाँ घोड़ा, अंधा-युग, कनुप्रिया, ठण्डा लोहा, अन्धा-युग सात गीत वर्ष, नदी प्यासी थी, कहनी-अनकहनी, ठेले पर हिमालय, पश्यन्ती, चाँद और टूटे हुए लोग भाषा परिमार्जित खड़ीबोली; मुहावरों, लोकोक्तियों, देशज तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग शैली भावात्मक, वर्णनात्मक, शब्द चित्रात्मक आलोचनात्मक हास्य व्यंग्यात्मक साहित्य काल विधाएं साहित्य में स्थान एक उत्तम निबन्धकार, उपन्यासकार, कवि और सर्वश्रेष्ठ नाटककार सम्पादन धर्मयुग सप्ताहिक पत्रिका पुरस्कार पद्मश्री, हल्दीघाटी श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार (1984), व्यास सम्मान, सर्वश्रेष्ठ नाटककार पुरुषकार संगीत नाटक अकादमी दिल्ली (1981), भारत भारती पुरस्कार (1989), महाराष्ट्र गौरव (1994) धर्मवीर भारती का जीवन परिचय महान् गद्य-लेखक एवं उच्चकोटि के पत्रकार डॉ० धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसम्बर, सन् 1926 को इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम०ए० और पी०एच०डी० की उपाधियाँ प्राप्त की। उन्होंने कुछ वर्षों तक वहीं से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पत्र ‘संगम’ का संपादन किया। धर्मवीर भारती इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग में प्राध्यापक भी रहे। सन् 1959 में वे मुम्बई से प्रकाशित होनेवाले हिन्दी के...

अंधा युग

अनुक्रम • 1 कथानक • 2 पात्र • 3 मंचन • 4 विशेषताएं • 5 बाहरी कड़ियाँ कथानक [ ] इसका कथानक महाभारत के अठारहवें दिन से लेकर श्रीकृष्ण की मृत्यु तक के क्षण पर आधारित है। पात्र [ ] इस गीतिनाट्य में विभिन्न पात्रों की योजना की गई है। जैसे- अश्वत्थामा, गान्धारी, धृतराष्ट्र, कृतवर्मा, संजय, वृद्ध याचक, प्रहरी-1, व्यास, विदुर, युधिष्ठिर, कृपाचार्य, युयुत्सु, गूँगा भिखारी, प्रहरी-2, बलराम, कृष्ण इत्यादि। मंचन [ ] यह् नाटक चार दशक से भारत की प्रत्येक भाषा में मंचित हो रहा है। विशेषताएं [ ] इस गीतिनाट्य का आरंभ मंगलाचरण से होता है। यह अंकों में विभाजित कृति है। 'कौरव नगरी' इस कृति का प्रथम अंक है। इसके दूसरे अंक का प्रारंभ 'पशु का उदय' नामक अध्याय से होता है। 'अश्वत्थामा का अर्द्धसत्य' इसका तीसरा अंक है। चौथे अंक का आरंभ 'गांधारी का शाप' से होता है। 'विजय:एक क्रमिक आत्महत्या' इसका पाँचवाँ अंक है। अंतिम अध्याय 'समापन' 'प्रभु की मृत्यु' के साथ ही इस नाट्य की समाप्ति होती है। इसे नए संदर्भ और कुछ नवीन अर्थों के साथ लिखा गया है। इसमें धर्मवीर भारती ने रंगमंच निर्देशको के लिए ढेर सारी संभावनाएँ छोड़ी हैं। कथानक की समकालीनता नाटक को नवीन व्याख्या और नए अर्थ देती है। नाट्य प्रस्तुति में कल्पनाशील निर्देशक नए आयाम तलाश लेता है। इस नाटक में कृष्ण के चरित्र के नए आयाम और अश्वत्थामा का ताकतवर चरित्र है, जिसमें वर्तमान युवा की कुंठा और संघर्ष उभरकर सामने आते हैं। बाहरी कड़ियाँ [ ] •

Hindi Kavita:धर्मवीर भारती की कविता 'इस डगर पर मोह सारे तोड़, ले चुका कितने अपरिचित मोड़'

ले चुका कितने अपरिचित मोड़ पर मुझे लगता रहा हर बार कर रहा हूँ आइनों को पार दर्पणों में चल रहा हूँ मैं चौखटों को छल रहा हूँ मैं सामने लेकिन मिली हर बार फिर वही दर्पण मढ़ी दीवार फिर वही झूठे झरोखे द्वार वही मंगल चिन्ह वन्दनवार किन्तु अंकित भीत पर, बस रंग से अनगिनित प्रतिबिंब हँसते व्यंग्य से फिर वही हारे कदम की मोड़ फिर वही झूठे अपरिचित मोड़ लौटकर फिर लौटकर आना वहीं किन्तु इनसे छूट भी पाना नहीं टूट सकता, टूट सकता काश यह अजब-सा दर्पणों का पाश दर्द की यह गाँठ कोई खोलता दर्पणों के पार कुछ तो बोलता यह निरर्थकता सही जाती नहीं लौटकर, फिर लौटकर आना वहीं राह में कोई न क्या रच पाऊंगा अंत में क्या मैं यहीं बच जाऊंगा विंब आइनों में कुछ भटका हुआ चौखटों के क्रास पर लटका हुआ। विशेष • आज का विचार: कुँवर नारायण • Hindi Kavita: केदारनाथ सिंह की कविता 'ठंड से नहीं मरते शब्द, वे मर जाते हैं साहस की कमी से' • दीपक जायसवाल: जिन बच्चों की माँएँ नहीं होतीं • कविता कादम्बरी की रचना- मेरे बेटे, कभी इतने ऊँचे मत होना • Hasya Poetry: हुल्लड़ मुरादाबादी के दोहे • Urdu Ghazal: कृष्ण बिहारी नूर की ग़ज़ल 'बिछड़ के तुझ से न जीते हैं और न मरते हैं'