कबीर वाणी के डिक्टेटर है कथन है

  1. “भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे।” प्रस्तुत कथन किस लेखक का है ? (क) नन्ददुलारे वाजपेयी (ख) रामचन्द्र शुक्ल
  2. UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi काव्य
  3. भक्तिकाल के कवियों के सम्बन्ध में प्रमुख कथन (bhakti kaal ke kaviyon ke bare me pramukh kathan)
  4. कबीर की भाषा / वाणी के डिक्टेटर
  5. कबीर की भाषा शैली
  6. वाणी के डिक्टेटर : कबीर :: मधुकर वनमाली


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“भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे।” प्रस्तुत कथन किस लेखक का है ? (क) नन्ददुलारे वाजपेयी (ख) रामचन्द्र शुक्ल

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi काव्य

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi काव्य-साहित्यका विकास बहुविकल्पीय प्रश्न : एक are part of Board UP Board Textbook NCERT Class Class 12 Subject Samanya Hindi Chapter Chapter 2 Chapter Name काव्य-साहित्यका विकास बहुविकल्पीय प्रश्न : एक Number of Questions 208 Category UP Board Solutions UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi काव्य-साहित्यका विकास बहुविकल्पीय प्रश्न : एक बहुविकल्पीय प्रश्न : एक [ ध्यान दें: नीचे दिये गये बहुविकल्पीय प्रश्नों के विकल्पों में सामान्य से अधिक काले छपे विकल्प को उचित विकल्प समझे।] । उचित विकल्प का चयन करें- (1) निम्नलिखित में से कौन-सा कथन आदिकाल से सम्बन्धित नहीं है? (क) युद्धों का सजीव वर्णन मिलता है (ख) लक्षण ग्रन्थों की रचना हुई (ग) रासो ग्रन्थ रचे गये। (घ) श्रृंगार प्रधान काव्यों की रचना हुई (2) दलपति विजय किस काल के कवि हैं ? (क) भक्तिकाल (ख) रीतिकाल (ग) आधुनिककाल (घ) आदिकाल (3) निम्नलिखित में से लौकिक साहित्य के अन्तर्गत हैं- (क) रेवंतगिरि रास (ख) खुसरो की पहेलियाँ (ग) खुमाण रासो (घ) कामायनी (4) हिन्दी के प्रथम कवि के रूप में मान्य हैं [2015, 16] (क) शबरपा (ख) चन्द (ग) लुइपा (घ) सरहपा (5) इतिवृत्तात्मकता की प्रधानता’ किस युग की मुख्य विशेषता थी ? (क) छायावाद काल (ख) द्विवेदी युग (ग) भारतेन्दु युग (घ) प्रगति काल (6) हिन्दी साहित्य का’आदिकाल’ निम्नांकित में से किस साम्राज्य की समाप्ति के समय से प्रारम्भ होता है ? (क) अंग्रेजी साम्राज्य (ख) वर्धन साम्राज्य (ग) गुप्त साम्राज्य (घ) मौर्य साम्राज्य (7) जैन साहित्य का सबसे अधिक लोकप्रिय रूप है (क) रासो ग्रन्थ (ख) रीति ग्रन्थ (ग) रास ग्रन्थ (घ) लौकिक ग्रन्थ (8) आदिकाल का एक अन...

भक्तिकाल के कवियों के सम्बन्ध में प्रमुख कथन (bhakti kaal ke kaviyon ke bare me pramukh kathan)

◆ आ. रामचंद्र शुक्ल के कथन :- 💐💐 कबीर बारे में कथन :- • “कबीर ने अपनी झाड़-फटकर के द्वारा हिन्दुओं और मुसलमानों के कट्टरपन को दूर करने का जो प्रयास किया वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं।” • “ज्ञानमार्ग की बातें कबीर ने हिंदू साधु, संन्यासियों से ग्रहण की जिनमें सूफियों के सत्संग से उन्होंने प्रेम तत्वों का मिश्रण किया।” • “कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे पर उनकी प्रतिभा बड़ी प्रखर थी जिससे उनके मुंह से बड़ी चुटीली और व्यंग्य – चमत्कार पूर्ण बातें निकलती थी।” • “कबीर तथा अन्य निर्गुण पंथी संतों के द्वारा अंतस्साधना में रागात्मिकता भक्ति और ज्ञान का योग तो हुआ है पर कर्म की दिशा वही रही जो नाथ पंथियों के यहाँ थी।” • “कबीर की भाषा सधुक्कड़ी अर्थात् राजस्थानी पंजाबी मिली खड़ी बोली है।” 💐💐 तुलसीदास बारे में कथन :- • “जिस प्रकार रामचरितमानस का गान करने वाले भक्त कवियों में तुलसीदास का स्थान सर्वश्रेष्ठ है, उसी प्रकार कृष्ण चरित गाने वाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास का।वास्तव में ये हिन्दी काव्यंगगन के सूर्य और चंद्र हैं।” • “रामचरितमानस में तुलसी केवल कवि रूप में ही नहीं, उपदेशक के रूप में भी सामने आते हैं।” • रामचरितमानस को ‘लोगों के हृदय का हार’ कहा है। • “तुलसीदास जी उत्तरी भारत की समग्र जनता के हृदय मन्दिर में पूर्ण प्रतिष्ठा के साथ विराज रहे है।” • “गोस्वामी जी की भक्ति पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वांगपूर्णता।” • “इनकी भक्ति रसभरी वाणी जैसे मंगलकारिणी मानी गई वैसी और किसी की नहीं।”【तुलसीदास के संबंध में】 • “तुलसीदास जी अपने ही तक दृष्टि रखने वाले भक्त न थे बल्कि संसार को भी दृष्टि फैलाकर देखने वाले भक्त थे।” • “तुलसीदास की रचना विधि की सबसे...

कबीर की भाषा / वाणी के डिक्टेटर

कबीर की भाषा / वाणी के डिक्टेटर डॉ॰ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है ‘‘भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है , उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया - बन गया तो सीधे-सीधे , नहीं तो दरेरा देकर। ’’ कबीर की भाषा जनता के टकसाल से निकली है उसमें व्याकरण और शास्त्र का आग्रह नहीं था और शायद इसीलिए कबीर अपनी भाषा के साथ हर तरह की मनमानी कर लेते थे। भाषा की सार्थकता का सवाल वहाँ पैदा होता है , जहाँ भाव दुर्बल हों। जहाँ भाव और विचार अनन्त से क्रियाएँ कर रहे हैं वहाँ भाषा की क्या बिसात। कबीर ने अपनी भाषा जनता से उठायी थी। कबीर जनता की भाषा के कवि है , वे अपनी आम फहम भाषा में जनता के बीच प्रचलित प्रतीक , रूपक और उपमाओं को जगह देकर अपने पदों को जीवंत बनाते हैं। यही वजह है कि जनता उनके प्रतीकों की दुर्बोधता के बीच से ही बोध की भूमि तलाश लेते हैं: आगि जु लागी नीर महिं , कादौ जरिया झारि। उत्तर दखिन के पंडिता , मुए विचारि-विचारि।। (ज्ञान विरह को अंग) ज्ञान विरह की आग जब मन रूपी नीर में लगती है , तब उसमें निहित विकार या वासनाएँ (कीचड़) पूर्णयतया भस्म हो जाती है तथा उत्तर दक्षिण के पंडित लाख विचार करने पर भी इसका अर्थ नहीं समझ पाते हैं। यहाँ कबीर ने आग , जल , कीचड आदि प्रतीकों के जरिए जिस कथन को सम्प्रेषित किया है- वह किसी साधारण जनता के लिए दुर्बाेध्य नहीं है। कबीर की इस उलटबाँसी में असंगति अलंकार (पानी में आग लगने) की सहायता से विरहाग्नि के धधकने एवं उसमें वासनाओं के कीचड़ जलने की गम्भीर चर्चा करते है। किन्तु जैसे ही मौका मिलता है , वे उत्तर दक्षिण के पंडितों के बहाने उन शास्त्र मर्मज्ञों पर व्यंग प्रहार करते हैं जिनका ज्ञा...

कबीर की भाषा शैली

पूरा नाम अन्य नाम कबीरा, कबीर साहब जन्म सन 1398 (लगभग) जन्म भूमि लहरतारा ताल, मृत्यु सन 1518 (लगभग) मृत्यु स्थान पालक माता-पिता नीरु और नीमा पति/पत्नी लोई संतान कमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री) कर्म भूमि कर्म-क्षेत्र समाज सुधारक कवि मुख्य रचनाएँ विषय सामाजिक भाषा शिक्षा निरक्षर नागरिकता भारतीय संबंधित लेख अन्य जानकारी कबीर का कोई प्रामाणिक जीवनवृत्त आज तक नहीं मिल सका, जिस कारण इस विषय में निर्णय करते समय, अधिकतर जनश्रुतियों, सांप्रदायिक ग्रंथों और विविध उल्लेखों तथा इनकी अभी तक उपलब्ध कतिपय फुटकल रचनाओं के अंत:साध्य का ही सहारा लिया जाता रहा है। इन्हें भी देखें भाषा और शैली - कबीरदास ने बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है। भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में कहलवा लिया–बन गया है तो सीधे–सीधे, नहीं दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार–सी नज़र आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवा फक्कड़ कि किसी फ़रमाइश को नाहीं कर सके। और अकह कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है वैसी बहुत ही कम लेखकों में पाई जाती है। असीम–अनंत ब्रह्मानन्द में आत्मा का साक्षीभूत होकर मिलना कुछ वाणी के अगोचर, पकड़ में न आ सकने वाली ही बात है। पर 'बेहद्दी मैदान में रहा कबीरा' में न केवल उस गम्भीर निगूढ़ तत्त्व को मूर्तिमान कर दिया गया है, बल्कि अपनी फ़क्कड़ाना प्रकृति की मुहर भी मार दी गई है। वाणी के ऐसे बादशाह को साहित्य–रसिक काव्यानंद का आस्वादन कराने वाला समझें तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। फिर व्यंग्य करने में और चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं ...

वाणी के डिक्टेटर : कबीर :: मधुकर वनमाली

कबीर मूलतः संत थे। अपने निर्गुण पंथ की मान्यताओं का प्रचार करना उन का मूल उद्देश्य था। जगह-जगह घूमकर उन्होंने निर्गुण पंथ का प्रचार किया। इसी कारण उन की भाषा में स्थान-स्थान की बोलियों का समावेश अनायास हीं हो गया। वैसे भी वो अभिजात्य और व्याकरणिक भाषा को त्याज्य हीं मानते थे। भाषा को बहती नदी की तरह समावेशी कह कर उन्होंने वस्तुत: लोकभाषा को प्रतिष्ठित किया है- कबीर की वाणी को उन के शिष्यों और बाद के कबीर पंथी संतों ने हीं लिखित रूप दिया है। अतः प्रेषक की भाषायी वैयक्तिकता आजकल उपलब्ध कबीर के साखी/शबदों को जरुर प्रभावित करती आई है। शब्दों के अलावा उच्चारण,वाक्य विन्यास, सर्वनाम और क्रियापदों में भी भाषायी विविधता है। अतः कबीर की भाषा संबंधी जटिलता को सधुक्कड़ी का नाम देकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे निपटाने का प्रयास किया है। शुक्ल जी ने अपने कालजयी ग्रंथ “हिंदी साहित्य का इतिहास”में इस उहापोह को इस प्रकार व्यक्त किया है- “वस्तुत: कबीर की भाषा के संदर्भ में अंतिम निर्णय टेढ़ी खीर है। अनुमान के आधार पर इतना हीं कहा जा सकता है कि संत कबीर का अधिकांश जीवन काशि में बीता,उन के भाषागत संस्कार अध्ययन की अपेक्षा श्रवण से बने, उन्होंने विभिन्न स्थानों की यात्रा की तथा वे अनेक प्रकार के साधु-संतों के संपर्क में आए , अतः उन की भाषा का मूल आधार पूर्वी रहा होगा, जिस में अन्य भाषाओं और बोलियों के लोकप्रचलित शब्द अनायास हीं आ गए होंगे। आंच व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है. इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं. लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है यह पत्रिका प...